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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3736
आईएसबीएन :9788183616621

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


"बस भी करो अम्मा!" उसने झुंझलाकर कहा था--"मैंने तुमसे कह दिया है, तुम्हें मेरी चिन्ता नहीं करनी होगी। मैं तुम्हें हर महीने पूरी तनख्वाह भेज दिया करूँगी, तुम्हारे छोटे-मोटे काम, मेरे कालेज का चपरासी बनवारी आकर निबटा जाएगा। मैंने उसे समझा दिया है, बीच-बीच में उसके हाथ में दस-बीस रुपये रखती रहना। वैसे भी तुम्हें बहुत मानता है। रही उमा और लालू की चिन्ता। दोनों को मैंने कड़ा सबक कंठस्थ करा दिया है। नहीं समझे तो खुद भुगतेंगे। इस बीच तुम मामा से कहकर उमा के लिए अच्छा लड़का ढूँढती रहना। इतनी अच्छी तनख्वाह मैं नहीं छोड़ सकती, उस पर खाना-पीना, रहना सब कुछ उन्हीं के मत्थे। मैं थोड़ा-बहुत हाथ-खर्च रख, पूरी तनख्वाह तुम्हें भेज सकती हूँ।"

ठीक ही तो कहा था उसने, यहाँ कालेज से उसे मिलते थे कुल पाँच सौ, उसमें से भी कुछ आने-जाने में निकल जाते, कुछ उमा-लालू की फीस में, दो ट्यूशनों से लगभग तीन सौ और कमा लेती थी, तीन सौ बाबूजी की पेंशन के मिलते थे। बड़े कष्ट से ही वह गृहस्थी की गाड़ी खींच रही थी, इसी से बारह सौ के वेतन का चुग्गा, उसे उस अज्ञात कस्बे में, इतनी दूर खींच लाया। अब नित्य यह तो नहीं सुनना होगा कि कुमुद, आज गेहूँ लाना है, चावल भी खत्म है। कालेज से लौटेगी तो चाय का बंडल लेती आना और राशन की दुकान में पूछती आना, चीनी आई या नहीं? आधा महीना बीत गया और अभी तक छटाँक भर चीनी भी नहीं मिली। बाजार से, आठ रुपये किलो चीनी मँगा रही हूँ! इन सब, एक-सौ बीस अप्रिय आदेशों से तो छुट्टी मिली!

"मिस साहब, लीजिए हम ठीक पन्द्रह मिनट में ही पहुँच गए," कार का द्वार खोल, नूरबक्श ने हाथ की घड़ी देखकर कहा।

कुमुद ने चौंककर देखा, बड़ी-सी हवेली की पोर्टिको में आकर कार रुक भी गई और वह अपने सोच-विचार में ही उलझी रह गई।

“आप आइए, मैं सामान फिर उतार लूँगा।"

वह उतरकर, उसके पीछे-पीछे चलती दीवानखाने में पहुँची। बाहर से जीर्ण दिख रही उन पांडुवर्णी हवेली की अन्तरंग सज्जा, इतनी मनोहारी होगी, उसने कल्पना भी नहीं की थी। बड़े-बड़े झाड़-फानूस, दीवारों पर टँगी निष्प्राण चीते-भालू की खालें, बारहसिंगे के बार्निश से चमकते श्रृंग, काँच की निर्जीव आँखें, पीतल के विराट चमकते नगाड़े-से फूलदान, शीशम की कुर्सियों पर रेशमी गद्दियाँ, चारों ओर पीढ़ियों के आभिजात्य के स्पष्ट हस्ताक्षर, कुमुद को गहनतम हीनता के गह्वर में डुबो गए। यह कहाँ आ गई थी वह? इस गुदगुदे कालीन की पशमी गहराई में अपनी चप्पलें किस दुःसाहस से वह रख पाएगी! सहसा अपनी गुजीमुजी वायल की साड़ी, उसे काँटे-सी चुभने लगी। कैसी मूर्ख थी वह? क्या यही साड़ी रह गई थी पहनने को! अपने सीमित साड़ी कोष से, वह दो-तीन ऐसी साड़ियाँ तो निकाल ही सकती थी, जो इस राजसी परिवेश से मेल खा सकती थीं। किन्तु तब वह क्या जानती थी, कि जिस गृहस्वामी के सीधे-सादे पत्र की भाषा जितनी सहज थी, उसकी गृह-सज्जा की ज्यामिति, उतनी ही दुरूह होगी।

"आप बैठिए, मैं साहब को खबर कर आऊँ!"

नूरबक्श ने सूटकेस लाकर एक कोने में धर दिया और सीढ़ियाँ चढ़ता, ऊपर की किसी मंजिल में अदृश्य हो गया।

कुमुद ने पर्स खोल कर, एक बार फिर वह पत्र पढ़ा। पिछले दस दिनों में वह कितनी बार उस पत्र को पढ़ चुकी थी। कहीं समझने में कुछ भूल तो नहीं हो गई थी। पत्र में उसके आह्वान में जो उत्साह मुखरित हुआ था, वह तो उसे अपने स्वागत में लेशमात्र भी दृष्टिगत नहीं हो रहा था। न स्टेशन पर ही गृह का कोई सदस्य उसे लेने आया, न कार की आहट पाकर ही उसका स्वागत करने कोई नीचे उतरा। यह तो नहीं लग रहा था कि हवेली में सब सो गए हैं। असंख्य कोष्ठ-प्रकोष्ठों में से प्रत्येक गवाक्ष, बिजली से जगमगा रहा था, जैसे कोई विराट जहाज, किसी बन्दरगाह पर लंगर डाले पड़ा हो-

नहीं, पत्र का आदेश एकदम स्पष्ट था-

"महोदय
आपका पत्र मिला, आप अविलम्ब आकर अपना कार्यभार ग्रहण करें। आपको वेतन सम्बन्धी कभी कोई शिकायत नहीं होगी। प्रत्येक माह की पहली तारीख को आपको बारह सौ का चेक प्राप्त हो जाएगा, इसके अतिरिक्त खान-पान-निवास सम्बन्धी आपकी प्रत्येक इच्छा को हम यथासम्भव पूर्ण करने की चेष्टा करेंगे। जैसा कि मैंने अपने विज्ञापन में भी स्पष्ट कर दिया था, अपनी रुग्ण पत्नी की देखभाल के लिए मुझे एक सहृदया संगिनी की आवश्यकता है, परिचारिका की नहीं। हम केवल दो प्राणी ही इस गृह में रहते हैं, मैं और मेरी पत्नी। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, मेरे गृह में आपको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा।

भवदीय

राजा राजकमल सिंह"

सहसा, सीढ़ियों पर क्रमशः नीचे उतर रही पदचाप की आहट पा उसने अचकचा कर चिट्ठी फिर पर्स में डाल दी, पर फिर सीढ़ियों से उतर रहे व्यक्ति को देखने का साहस, उसे नहीं हुआ। जब दीवानखाना ही ऐसे ठाठदार था तो गृहस्वामी भी निश्चय ही ठसकेदार होगा!

"मिस साहब!" यह तो गृहस्वामी नहीं, उसके सामने नूरबक्श ही खड़ा था-“साहब ने कहा है, आप अभी थककर आई हैं, नहा-धोकर थोड़ा सुस्ता लें, चलिए मैं आपको आपका कमरा दिखा दूं।"

कुमुद, उसके इस विचित्र सम्बोधन से बार-बार चिहुँक-सी रही थी, कल उससे स्पष्ट कह देगी, उसे मिस साहब कहकर न पुकारे, उसे लग रहा था जैसे वह किसी मिशन अस्पताल की नर्स हो!

वह सूटकेस उठाकर, फिर उसे एक सुदीर्घ सुरंग-सी गैलरी से ले जाता, जिस कमरे के बाहर खड़ा हुआ, उसके बाहर ही बेंच पर बैठी एक बुढ़िया ऊँघ रही थी।

"लो, सारी कोठी ढूँढ़ आया और ये यहाँ बैठी ऊँघ रही है! मैं कहता हूँ बुआ, दरवाजा खोलो, नई मिस साहब आ गई हैं।"

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